माण्डूक्य उपनिषद् में ॐ
Written by स्वामी ज्ञानेश्वर पुरी
Last updated: Sep, 02 2024 • 4 min read
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उपनिषद् का हिंदी अनुवाद, हिंदू धर्म सम्राट परमहंस स्वामी माधवानंद जी महाराज द्वारा प्रकाशित श्री दीप नारायण महाप्रभुजी की पुस्तक 'विज्ञान दीप गीता' से लिया गया है।
महामंडलेश्वर स्वामी ज्ञानेश्वर पुरी द्वारा भाष्य
ॐ ओमित्येतदक्षरमिद् ॐ सर्वं तस्योपव्याख्यानं भूतं भवद्भविष्यदिति सर्वमोंङ्कार एव।
यच्चान्यत्त्रिकालातीतं तदप्योंकारईव ॥ १ ॥
सर्वं ॐ ह्येतद्ब्रह्मायमात्मा ब्रह्म सोऽयमात्मा चतुष्पात् ॥ २ ॥
OṂ OM-ITYETAD-AKṢARAMID OṂ SARVAṂ TASYOPAVYĀKHYĀNAṂ BHŪTAṂBHAVADBHAVIṢYADITI SARVAMOṂṄKĀRA EVA|
YACCĀNYATTRIKĀLĀTĪTAṂ TADAPYOṂKĀRĪVA || 1 ||
SARVAṂ OṂ HYETADBRAHMĀYAMĀTMĀ BRAHMA SO’YAMĀTMĀ CATUṢPĀT || 2 ||
अर्थ - ”ॐ” ऐसा अक्षर ब्रह्म है और यही सब कुछ है, इसी का सब कुछ उपख्यान (विस्तार) है, जो कुछ हो चुका है, हो रहा है अथवा होता रहेगा, वह सभी ॐकार ही है और जो तीनो कालों से अतीत है ( परे है ) वह भी ॐकार ही है यह सभी कुछ नि:सन्देह ब्रह्म ही है । यह आत्मा भी ब्रह्म है। (अयमात्मा ब्रह्म ) यह वाक्य वेदों के चोरो महावाक्यों में से एक चतुर्थ महावाक्य है । चारो महावाक्य यो हैं - १. प्रज्ञानं ब्रह्म ( ऋग्वेद ) २. अंह ब्रह्मास्मि ( यजुर्वेद ) ३. तत्वमसि (सामवेद ) ४. अयमात्मा ब्रह्म (अथर्ववेद)। यह आत्मा निश्चय ही ब्रह्म है । वह यह ब्रह्मस्वरूप आत्मा चार पादों (चरणों) वाला है। ॥८॥ ॥९॥
(माण्डूक्य उपनिषद्, श्लोक १ और २)
जागरितस्थानो बहिःप्रज्ञः सप्ताङ्ग एकोनविंशतिमुखः
स्थूलभुग्वैश्वानरः प्रथमः पादः ॥ ३ ॥
JĀGARITASTHĀNO BAHIḤ-PRAJÑAḤ SAPTĀṄGA EKONAVIṂŚATIMUKHAḤ
STHŪLA-BHUG-VAIŚVĀ-NARAḤ PRATHAMAḤ PĀDAḤ || 3 ||
अर्थ :- जाग्रत (जागना) स्थान वाला बाह्म विषयों मीं ज्ञान रखने वाला, सात अङ्गों (अग्निहोत्र कल्पना के विशेषण = तेज, चक्षु, प्राण, पृथग्वर्त्म, बस्ति, बहुल ( कृष्णपक्ष ) पृथ्वी वाला, १९ मुखों (पाँच कर्मेन्द्रिय, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पञ्चवायु = प्राण, अपान, समान, उदान और व्यान; मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार वाला, स्थाल विषयों का उपभोग करने वाला वैश्वानर नाम का प्रथम पाद है । ॥११॥
(माण्डूक्य उपनिषद्, श्लोक ३)
भाष्य: यहाँ, दिव्य वैश्वानर या विश्व (सांसारिक সত্তা) के सात अंगों का वर्णन किया गया है: १. स्वर्ग सिर है। २. सूर्य और चंद्रमा उसकी आँखें हैं। ३. वायु उसका श्वास है। ४. अग्नि (आहवनीय अग्नि, अग्निहोत्र यज्ञ की तीन अग्नियों में से एक) उसका मुख है। ५. आकाश उसका मध्य भाग या शरीर है। ६. जल उसका मूत्र अंग (गुर्दा या मूत्राशय) है। ७. पृथ्वी उसके पैर हैं। यहाँ, लेखक ने केवल दो शब्दों, 'सात अंगों' के साथ छांदोग्य उपनिषद् (V.18.ii) का संदर्भ दिया है, जहाँ इन शब्दों की आगे व्याख्या की गई है।
स्वप्नस्थानोऽन्तःप्रज्ञः सप्ताङ्ग एकोनविंशतिमुखः
प्रविविक्तभुक्तैजसो द्वितीयः पादः ॥ ४ ॥
SVAPNASTHĀNO’NTAḤPRAJÑAḤ SAPTĀṄGA EKONAVIṂŚATIMUKHAḤ
PRAVIVIKTABHUK-TAIJASODVITĪYAḤ PĀDAḤ || 4 ||
अर्थ :- स्वप्नावस्था का स्थान वाला, अन्तः प्रज्ञावाला, अर्थात् जाग्रत अवस्था के संस्कारों को मन मे धारण कर सोते समय स्वप्न में उन्ही का साक्षात् ज्ञान करने वाला, अतएव वे ही सात अङ्ग और उन्नीस मुख इसके भी हैं, परन्तु स्थूल विषयों का नहीं, अपितु मनः संकल्पित विषयों का उपभोग करने वाला, अतएव वह प्रविविक्तभोजी तैजस नाम का, इस आत्मा का दुसरा पाद है । ॥१२॥
(माण्डूक्य उपनिषद्, श्लोक ४)
यत्र सुप्तो न कञ्चन कामं कामयते न कञ्चन स्वप्नं पश्यति तत् सुषुप्तम् ।
सुषुप्तस्थान एकीभूतः प्रज्ञानघन एवानन्दमयो
ह्यानन्दभुक् चेतोमुखः प्राज्ञस्तृतीयः पादः ॥ ५ ॥
YATRA SUPTO NA KAÑCANA KĀMAṂ KĀMAYATE NA KAÑCANA SVAPNAṂ PAŚYATI TAT SUṢUPTAM |
SUṢUPTASTHĀNA EKĪBHŪTAḤ PRAJÑĀNAGHANA EVĀNANDAMAYO
HYĀNANDABHUK CETOMUKHAḤ PRĀJÑAS-TṚTĪYAḤ PĀDAḤ || 5 ||
अर्थ :- जहाँ सोता हुआ न कोई इच्छा करता है और न ही कोई स्वप्न देखता है, उसे सुषुप्ति अवस्था कहते हैं, सभी विषयों से पृथक् होकर एकीभूत होता हुआ, अतएव प्रज्ञानघन और आनन्दस्वरूप तथा आनंद मात्र का उपभोग करने वाला, चेत स्वरूप मुख वाला प्राज्ञ नाम का तीसरा पाद है । ॥१३॥
(माण्डूक्य उपनिषद्, श्लोक ५)
भाष्य: हैं जो अलग-अलग समय पर घटित होती हैं। गौडमपाद कारिका की पुस्तक के अनुसार, जाग्रत अवस्था का स्थान दाहिनी आँख का स्थान है, स्वप्नावस्था का स्थान मन का स्थान है, और सुषुप्ति अवस्था का स्थान हृदय का स्थान है।
जाग्रत अवस्था में, व्यक्ति सभी १९ इंद्रियों का उपयोग स्थूल बाहरी दुनिया में करता है। निद्रावस्था में, सभी १९ इंद्रियों का उपयोग सूक्ष्म दुनिया में होता है, लेकिन सुषुप्ति अवस्था में, किसी भी इंद्रिय का उपयोग नहीं होता; हमारी चेतना अविभाजित होती है, और हम आनंद का अनुभव करते हैं। इसलिए, तीसरी अवस्था को प्राज्ञ घन या चेतना का घनीभूत (एकसमान पिंड) कहा जाता है।
एष सर्वेश्वर एष सर्वज्ञ एषोऽन्तर्याम्येष
योनिः सर्वस्य प्रभवाप्ययौ हि भूतानाम् ॥ ६ ॥
EṢA SARVEŚVARA EṢA SARVAJÑA EṢO’NTARYĀMYEṢA
YONIḤ SARVASYA PRABHAVĀPYAYAU HI BHŪTĀNĀM || 6 ||
अर्थ :- यह अपनी वास्तविक अवस्था में रहने के कारण सबका ईश्वर है, तथा यह सर्वज्ञ है, यह अन्तर्यामी है, यही सब जगत् का उत्पादक जन्म देने वाला है, और यही सभी चराचर जीवों का उत्पादन और संहार करने वाला है। इस एक ही आत्मा की तीन अवस्थाएँ बताई गई। अब आगे तुरीयावस्था (चतुर्थ अवस्था ) का वर्णन करते हैं। ॥१४॥
(माण्डूक्य उपनिषद्, श्लोक ६)
नान्तःप्रज्ञं न बहिष्प्रज्ञं नोभयतःप्रज्ञं न प्रज्ञानघनं न प्रज्ञं नाप्रज्ञम् ।
अदृष्टमव्यवहार्यमग्राह्यमलक्षणं अचिन्त्यमव्यपदेश्यमेकात्मप्रत्ययासारं प्रपञ्चोपशमं शान्तं शिवमद्वैतं चतुर्थं मन्यन्ते स आत्मा स विज्ञेयः ॥ ७ ॥
NĀNTAḤPRAJÑAṂ NA BAHIṢPRAJÑAṂ NOBHAYATAḤPRAJÑAṂ NA PRAJÑĀNAGHANAṂ NA PRAJÑAṂ NĀPRAJÑAM |
ADṚṢṬAMAVYAVAHĀRYAMAGRĀHYAMALAKṢAṆAṂ ACINTYAMAVYAPADEŚYAMEKĀTMAPRATYAYĀSĀRAṂ PRAPAÑCOPAŚAMAṂ ŚĀNTAṂ ŚIVAMADVAITAṂ CATURTHAṂ MANYANTE SA ĀTMĀ SA VIJÑEYAḤ || 7 ||
अर्थ :- न तो अन्तः प्रज्ञा वाला, न ही बहार की प्रज्ञा वाला तथा न ही दोनों प्रकार की ( सामूहिक ) प्रज्ञावाला, न प्रज्ञानघन है और न ही प्रज्ञ और न ही अप्रज्ञ है। वह अदृश्य, व्यवहार में आने वाला नही, न ही वह ग्रहण किया जाने वाला और न ही उसका कुछ लक्षण है, न ही उसका चिन्तन किया जा सकता है। वह तो अचिन्त्य है, और न ही किसी से पुकारा जाने वाला है, अतः एकात्म प्रतीति ही उसका सार है। उससे सभी प्रपञ्च शान्त हो जाते हैं। अतएव उसे शान्तस्वरूप अद्वैत शिवस्वरूप मे स्वंय ही ज्ञात करता इसे ही तुरीय ( चतुर्थ ) मानते हैं। यही आत्मा है। यही जानने योग्य है। अतएव शिव को विलक्षण (विचित्र स्वरूप वाला) कहा जाता है। इसे ही तुरीयावस्था अथवा अवस्थातीत कहते हैं। ॥१५॥
(माण्डूक्य उपनिषद्, श्लोक ७)
सोऽयमात्माध्यक्षरमोङ्करोऽधिमात्रं पादा मात्रा
मात्राश्च पादा अकार उकारो मकार इति ॥८॥
SO’YAMĀTMĀDHYAKṢARAMOṄKARO’DHIMĀTRAṂ PĀDĀ MĀTRĀ
MĀTRĀŚCA PĀDĀ AKĀRA UKĀRO MAKĀRA ITI ||8||
अर्थ :- वह, यह आत्मा अक्षर को अधिकृत करके रहने वाला ॐकार स्वरूप है। यह ॐकार (तीन मात्रा और अमात्र स्वरूप) तीन पादों वाला, तीन मात्राओं वाला है। इसके पाद मात्राएँ कहलाते हैं और मात्राओं को पादनाम से भी बतलाया जाता है। वे पाद या मात्राएँ अकार, उकार और मकार इस प्रकार व्रर्णित हैं। ॥१६॥
(माण्डूक्य उपनिषद्, श्लोक ८)
जागरितस्थानो वैश्वानरोऽकारः प्रथमा मात्राऽऽप्तेरादिमत्त्वाद्वाऽऽप्नोति
ह वै सर्वान् कामानादिश्च भवति य एवं वेद ॥ ९ ॥
JĀGARITASTHĀNO VAIŚVĀNARO’KĀRAḤ PRATHAMĀ MĀTRĀ’’ PTERĀDIMATTVĀDVĀ’’PNOTI
HA VAI SARVĀN KĀMĀNĀDIŚCA BHAVATI YA EVAṂ VEDA || 9 ||
अर्थ :- जागरित स्थान वैश्वानर, जो इस आत्मा का प्रथम पाद बतलाया गया, वह इसी ॐकारस्वरूप परब्रह्म परमेश्वर की प्रथम मात्रा अकार "अ" (यह अक्षर) है। जो व्यक्ति इसे ठीक समझ ले, वह सभी इष्ट पदार्थों को प्राप्त कर लेता है और अग्रगण्य हो जाता है। ॥१७॥
(माण्डूक्य उपनिषद्, श्लोक ९)
स्वप्नस्थानस्तैजस उकारो द्वितीया मात्रोत्कर्षात् उभयत्वाद्वोत्कर्षति ह वै ज्ञानसन्ततिं समानश्च भवति नास्याऽब्रह्मवित्कुले भवति य एवं वेद ॥ १० ॥
SVAPNASTHĀNASTAIJASA UKĀRO DVITĪYĀ MĀTROTKARṢĀT
UBHAYATVĀDVOTKARṢATI HA VAI JÑĀNASANTATIṂ SAMĀNAŚCA BHAVATI
NĀSYĀ’BRAHMAVITKULE BHAVATI YA EVAṂ VEDA || 10 ||
अर्थ :- स्वप्न स्थान वाला जो तैजस पहिले बतलाया गया वह ॐकार की दूसरी मात्रा है (जो आत्मा का द्वितीय पाद भी कहा गया है)। यह 'उ‘ उत्कृष्टता का द्योतक है तथा 'उ‘ उभयता (दोनो) का भी द्योतक है, अतः यह ज्ञान की उत्कृष्टता को बढाता है। जो इसे ठीक समझ लेता है, उसे शत्रु और मित्र दोनो समान भाव से मानते हैं। अर्थात् दोनो उसका आदर करते हैं । जैसे भगवान शंकर की उपासना रामकृष्णादिक भी करते हैं, और रावण, जरासन्धादिक भी उसी प्रकार करते हैं। तथा इसे जानने वाले के कुल में (पीढियो) में अब्रह्मवेत्ता कोई भी नहीं होता। ॥१८॥
(माण्डूक्य उपनिषद्, श्लोक १०)
सुषुप्तस्थानः प्राज्ञो मकारस्तृतीया मात्रा मितेरपीतेर्वा
मिनोति ह वा इदं सर्वमपीतिश्च भवति य एवं वेद ॥ ११ ॥
SUṢUPTASTHĀNAḤ PRĀJÑO MAKĀRASTṚTĪYĀ MĀTRĀ MITERAPĪTERVĀ
MINOTI HA VĀ IDAṂ SARVAMAPĪTIŚCA BHAVATI YA EVAṂ VEDA || 11 ||
अर्थ ;- इस आत्मा का जो सुषुप्त स्थान वाला प्राज्ञ तीसरा पाद पूर्व में कहा गया है। वह ॐकार स्वरूप परब्रह्म परमात्मा की तीसरा मात्रा होठ बन्द करके म-कार है। यह होठ बन्द करके बोला जाने के कारण वैश्वानर और तैजस दोनों को माप लेता है, दोनों को एक में मिला देता है, अतः यह एकीभाव प्रदर्शित करता है। जो माप लेता है और एकत्व स्वरूप बन जाता है, जो कभी नाश को प्राप्त नहीं होता। ॥१९॥
(माण्डूक्य उपनिषद्, श्लोक ११)
भाष्य: ॐ का जाप करने की यात्रा एक गहन यात्रा है। जैसे ही अ और उ की ध्वनियाँ म में विलीन होती हैं, जाग्रत और निद्रावस्था भी गहरी नींद में विलीन हो जाती हैं। यह गहरी नींद, जिसका प्रतिनिधित्व म करता है, पिछली अवस्थाओं का माप और एकीकरण दोनों है। इसी अवस्था में व्यक्ति वास्तव में सब कुछ समझ और जान सकता है।
अमात्रश्चतुर्थोऽव्यवहार्यः प्रपञ्चोपशमः शिवोऽद्वैत एवमोङ्कार
आत्मैव संविशत्यात्मनाऽऽत्मानंय एवं वेद ॥ १२ ॥
AMĀTRAŚCATURTHO’VYAVAHĀRYAḤ PRAPAÑCOPAŚAMAḤ ŚIVO’DVAITA EVAMOṄKĀRA ĀTMAIVA SAṂVIŚATYĀTMANĀ’’TMĀNAṂYA EVAṂ VEDA || 12 ||
अर्थ :- एकीभूत ॐकार अमात्र (मात्राओं को निगल जाने वाला) जो आत्मा को शिवस्वरूप चर्तुथ पाद बतलाया गया है। वह सभी मात्राओं का सामूहिक स्वरूप ॐ कार व्यवहार में नहीं आने वाला, सभी प्रपञ्चों को शान्त कर देने वाला अद्वैत ॐकार ही शिव और शिव ही अद्वैत ॐकार माना गया है। जो इसे ठीक ह्रदयङ्गम कर ले और बुद्धि तत्त्व से जान ले वह शिव की भाँति अपने आत्मा ही में आत्मस्वरूप होकर प्रविष्ट हो जाता है। अर्थात् कैवल्य पद प्राप्त निर्विकल्पक समाधि में अधिष्ठित हो जाता है ।
(माण्डूक्य उपनिषद्, श्लोक १२, माण्डूक्य उपनिषद् का अंत)
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